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लेखनी प्रतियोगिता -12-Apr-2023 ययाति और देवयानी

भाग 28 
कच सीधा दैत्यों की राजधानी में आ गया । यहां पर सुरक्षा का कड़ा इंतजाम था । जगह जगह पर सुरक्षा कर्मी उसे रोककर पूछताछ करते । उसकी तलाशी लेते । कच ने पहले ही अपने वल्कल वस्त्र उतार कर एक वृक्ष की टहनी पर टांग दिये थे और दैत्य राज्य का राजकीय रंग "काला" रंग के वस्त्र धारण कर लिये थे । इस वस्त्र परिवर्तन से कोई उसे देवलोक वासी के रूप में पहचान नहीं सका था । वह अपना परिचय कच ही बताता था और कहता था कि वह आचार्य शुक्र से विद्या लेने हेतु आया है । जैसे ही सुरक्षा कर्मियों ने उसके मुख से आचार्य शुक्र का नाम सुना तो दो सुरक्षा कर्मी कच को अपने साथ लेकर शुक्राचार्य के आश्रम पर आ गये । 

शुक्राचार्य का आश्रम एक ऊंची पहाड़ी पर बसा हुआ था । सुरक्षा कारणों से ही वह आश्रम वहां पर बनाया गया था । दैत्यों के गुरू थे शुक्राचार्य और वे मृत संजीवनी विद्या के एकमात्र ज्ञाता थे इसलिए उनके प्राणों पर सदैव संकट की तलवार लटकी रहती थी । क्या पता कब कोई देवता आकर उन पर आक्रमण कर उन्हें क्षति पहुंचाने का प्रयास कर दे ? इसलिए उनके आश्रम के बाहर कड़ी सुरक्षा व्यवस्था थी । 

वहां पर फिर से कच की संपूर्ण तलाशी ली गई और उसका परिचय पूछा गया । यहां पर कच ने अपना परिचय ब्रहस्पति पुत्र कच के रूप में दिया था । सुरक्षा कर्मी इस परिचय से चौंके अवश्य किन्तु उन्हें शुक्राचार्य के आदेश के बिना कोई भी कार्य करने की आज्ञा महाराज वृषपर्वा ने नहीं दे रखी थी इसलिए वे शांत ही रहे । वहां पर तैनात सुरक्षा कर्मियों का सबसे बड़ा अधिकारी कच को अपने साथ लेकर शुक्राचार्य के सामने पहुंचा । कच ने शुक्राचार्य को देखकर उन्हें साष्टांग दण्डवत प्रणाम किया और वह उनके चरणों में तब तक लेटा रहा जब तक उन्होंने स्वयं नीचे झुककर उसे नहीं उठाया । 
"उठो वत्स ! तुम कौन हो और किस प्रयोजन से यहां पर आए हो" ? शुक्राचार्य उसके प्रणाम करने के तरीके से प्रसन्न हो गये थे । 
"आचार्य, मेरा नाम कच है और मैं यहां पर आपका शिष्य बनकर विद्या ग्रहण करने हेतु आया हूं" । कच ने विनीत भाव से कर बद्ध होकर कहा । 
"मुझे तुम्हें अपना शिष्य बनाकर अत्यंत प्रसन्नता होगी पर पहले अपना पूरा परिचय दो वत्स" शुक्राचार्य ने आदेशात्मक स्वर में कहा 
"आचार्य, गुरू के समक्ष शिष्य का इतना ही परिचय होता है कि वह उनका शिष्य है । मैं भी आपका शिष्य बनना चाहता हूं आचार्य । आप मेरे आचार्य और मैं आपका शिष्य,  यही मेरा परिचय है" । कच एक एक शब्द सोच समझ कर बोल रहा था । 
"अभी तुम्हें मैंने अपना शिष्य नहीं बनाया है वत्स ! इसलिए अभी तुम्हारे शिष्य वाले परिचय की आवश्यकता नहीं है । अभी तो तुम अपना वास्तविक परिचय दो" । 
अब कच के पास अन्य कोई विकल्प नहीं था । उसे भय था कि उसका वास्तविक परिचय प्राप्त कर कहीं शुक्राचार्य उसे अपना शिष्य बनाने से इंकार न कर दें पर अब तो गुरुजी का आदेश हो गया था इसलिए उसे अपना परिचय देना ही होगा । वह अपना परिचय देते हुएबोला, "आपके गुरु महर्षि अंगिरा के पुत्र और आपके गुरु भाई देव गुरु ब्रहस्पति पुत्र कच हूं तात । आपका शिष्य बनकर "नीतिशास्त्र" सीखने आया हूं" । कच का स्वर गंभीर था । 

कच का परिचय सुनकर शुक्राचार्य अवाक् रह गए । इसकी तो कल्पना ही नहीं की थी उन्होंने । देवलोक से कोई देव पुत्र उनसे "नीतिशास्त्र" पढ़ने यहां पर आयेगा यह अविश्वसनीय बात थी । यह बात तब और भी अधिक आश्चर्यजनक हो जाती है जब वह विद्यार्थी उनका चिर प्रतिद्वंदी ब्रहस्पति का पुत्र हो । वही ब्रहस्पति जो उनसे कम योग्य होने के बावजूद देवलोक के गुरू बन गये । इस पक्षपातपूर्ण निर्णय ने उनकी दुनिया ही बदल दी थी । इसी पक्षपातपूर्ण निर्णय के कारण उन्हें दैत्यों का गुरू बनना पड़ा था । वही ब्रहस्पति जो उनसे सदैव ईर्ष्या करता था , उसका पुत्र उनसे विद्या सीखने देवलोक से चलकर आया है ? यह असंभव है । कहीं इसके पीछे इन्द्र की कोई चाल तो नहीं है ? इन्द्र पर विश्वास नहीं किया जा सकता है, वह कुछ भी कर सकता है । कहीं इसे मृत संजीवनी विद्या चुराने तो नहीं भेजा है यहां पर इन्द्र ने ? ब्रहस्पति भी तो "नीतिशास्त्र" के प्रमुख विचारक हैं । उन्होंने भी तो एक "नीतिशास्त्र" नामक पुस्तक लिखी है फिर उन्होंने अपने पुत्र को नीतिशास्त्र क्यों नहीं पढाया बल्कि उसे यहां पर प्रेषित कर दिया । क्या उद्देश्य हो सकता है देवों का इसके पीछे ? शुक्राचार्य सोचने लगे । 

शुक्राचार्य को वह घटना याद आ गई जब देव गुरू नियुक्त करने के लिए ब्रहस्पति और उनमें प्रतियोगिता रखी गई थी । इस हेतु एक निर्णायक मण्डल बनाया गया था जिसमें महर्षि अंगिरा , महर्षि भृगु और महर्षि कश्यप को निर्णायक बनाया गया था । दोनों के मध्य शास्त्रार्थ रखा गया । वह शास्त्रार्थ कई दिनों तक चला था । दोनों प्रतिभागी इतने विद्वान थे कि प्रत्यक्ष रूप से न कोई पराजित हुआ और न ही कोई विजेता बना । निर्णायक मण्डल को किसी एक के पक्ष में निर्णय देना था इसलिए निर्णायक मण्डल ने ब्रहस्पति को विजेता घोषित कर दिया । इस प्रकार उनके सपनों और उनकी महत्वाकांक्षाओं पर वज्रपात हो गया था । उस चोट से वे आज तक नहीं उबर सके हैं । वह घाव आज भी टीस देता है उन्हें । वे तो इस घाव को विस्मृत करने की चेष्टा कई बार कर चुके हैं किन्तु यह निर्मम घाव भरने का नाम ही नहीं ले रहा है । आज यह फिर से हरा हो गया है । 

कच शुक्राचार्य की मनःस्थिति समझ गया कि शुक्राचार्य क्या सोच रहे हैं लेकिन वह इस अवसर पर शांत ही रहा और शुक्राचार्य के चेहरे पर आते जाते भावों को देखता रहा । अचानक शुक्राचार्य ने उससे पूछा 
"नीतिशास्त्र तो ब्रहस्पति ने भी लिखी है वत्स ! फिर ब्रहस्पति ने उसे तुम्हें पढाना उचित क्यों नहीं समझा" ? 

इस प्रश्न के लिए कच पहले से ही तैयार था इसलिए उसने तुरंत उत्तर देते हुए कहा "आचार्य, यह बात तात श्री कई बार कह चुके हैं कि नीतिशास्त्र के वे और आप दोनों ही प्रकाण्ड पण्डित हैं पर वे यह भी कई बार कह चुके हैं कि आप नीतिशास्त्र उनसे अधिक जानते हैं । आपका इस विषय पर ज्ञान अद्भुत है और आपकी व्याख्याऐं इतनी सरल हैं कि वह आम लोगों के भी समझ में आ सकती हैं । भाषा भी आपने जन साधारण की ही चुनी है । इसीलिए उन्होंने कहा कि "नीतिशास्त्र" यदि पढना है तो शुक्राचार्य से पढना । शुक्राचार्य नीतिशास्त्र की ऐनसाइक्लोपीड़िया हैं । बस, उसी दिन से मैंने रट लगा दी थी कि मैं आपसे नीतिशास्त्र पढने के लिए यहां जाऊंगा । घर में सबसे छोटा बालक हूं इसलिए सबका कृपा पात्र भी हूं । मैं आपसे विद्या लिये बिना वापस नहीं लौटूंगा , यह मेरी दृढ़ प्रतिज्ञा है आचार्य" । कच के चेहरे , स्वर और भाव भंगिमा में दृढ़ता थी । 

शुक्राचार्य कुछ कहते इसके पहले ही सुरक्षा प्रमुख बोल पड़े "आचार्य, यह व्यक्ति देवलोक से आया है । देवता हमारे शत्रु हैं । यह इस आश्रम में रहकर यहां पर अध्ययन कैसे कर सकता है गुरुदेव" ? 

सुरक्षा प्रमुख का इस तरह बिना अनुमति के बोलना शुक्राचार्य को बहुत बुरा लगा । वे उस पर गुर्रा कर बोले 
"तुमने कुछ बोलने के लिए क्या मुझसे अनुमति ली थी वत्स ? यदि नहीं तो फिर तुम्हारा साहस कैसे हुआ परामर्श देने का ? मैं दैत्य गुरू हूं और यह आश्रम मेरा है । इसके अंदर वही नियम लागू होंगे जो मैं चाहूंगा । इस आश्रम में कौन अध्ययन करेगा और कौन नहीं, इसका निर्णय केवल मैं करूंगा । समझे"।  शुक्राचार्य के चेहरे पर खिन्नता के भाव थे । इसके बाद वे कच की ओर मुड़े और कहने लगे 
"वत्स, शिक्षा प्राप्त करना प्रत्येक बालक का मौलिक अधिकार है । तुम विद्या अध्ययन के लिए मेरे पास आये हो, यह मेरा सौभाग्य है । यह सौभाग्य तब और भी अधिक हो जाता है जब परम बुद्धिमान देव गुरू स्वयं तुम्हें विद्या अध्ययन हेतु यहां प्रेषित करते हैं । मुझे हर्ष है कि मैं तुम जैसे श्रेष्ठ शिष्य का आचार्य बन रहा हूं । पर इस आश्रम के कुछ नियम हैं वत्स । तुम्हें उन नियमों का कड़ाई से पालन करना होगा । क्या यह तुम्हें स्वीकार्य है" ? शुक्राचार्य ने कच से पूछा 

शुक्राचार्य के मुंह से यह बात सुनकर कच गदगद हो गया । वह आचार्य के चरणों में लेट गया और कहने लगा "आपने मुझे अपना शिष्य स्वीकार कर मुझे एक नया जन्म दिया है प्रभु । पहला जन्म तो माता पिता देते हैं और दूसरा जन्म गुरू देता है । आज मैं "द्विज" हो गया हूं तात् । आपने मुझ पर जो उपकार किया है यह मैं कभी नहीं भूलूंगा । इस आश्रम के समस्त नियमों का मैं कड़ाई के साथ पालन करूंगा । आपको मुझसे कभी कोई शिकायत नहीं होगी गुरुवर " । 
"उठो वत्स और आश्रम में रहकर आश्रम के नियम समझ लो । और सारे नियम तो आचार्य समझा देंगे आपको पर एक सबसे कठिन नियम मैं बता देता हूं वत्स । इस आश्रम में तुम्हें ब्रह्मचर्य व्रत का कठोरता से पालन करना होगा । मेरे समक्ष इस बात की प्रतिज्ञा करो कि तुम ब्रह्मचर्य व्रत का कठोरता से पालन करोगे" । शुक्राचार्य ने कहा 

कच ने वहीं पर खड़े होकर एक बांह आकाश की ओर उठाकर प्रतिज्ञा की "मैं देव गुरू ब्रहस्पति पुत्र कच दसों दिशाओं को साक्षी मानकर यह प्रतिज्ञा करता हूं कि मैं इस आश्रम में रहकर पूर्ण ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करूंगा और इस आश्रम के समस्त नियमों का तन मन से पालन करूंगा" । 
इसके पश्चात कच ने अपने गुरू शुक्राचार्य के चरण स्पर्श कर उनसे आशीर्वाद प्राप्त किया । एक आचार्य उन्हें शेष नियम बताने और उन्हें उनके कक्ष तक पहुंचाने के लिए अपने साथ ले गया । 

श्री हरि 
28.5.23 

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